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कविता

दुःख की भी गरिमा होती है

यश मालवीय


सिर्फ सुखों का नहीं
दुखों का भी अपना घनत्व होता है
हाहाकार भले कैसे हो
मन में सन्नाटा बोता है।

दुख की भी गरिमा होती है
आँसू होते हैं चमकीले
बहुत पास से छू लेते हैं
आकर बादल गीले-गीले

जान न पातीं दीवारें भी
कोई कब कितना रोता है।

दुख के नाक नक्श में कोई
अपनी-सी ही शक्ल कौंधती
हर तारीख जंगली पशु-सी
पाँव तले की घास रौंदती

फिर भी बीती-सी रोशनियों,
को अनबीता पल ढोता है।

अपने साथ बहुत कुछ अक्सर
ले जाते हैं जाने वाले
रात रात अंधियारा पीकर
फूल नहीं पड़ते हैं काले

इंतजार की पंखुरियों को
सुबह ओस का सच धोता है।

 


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